कालनेमि

 कालनेमि और विष्णु भगवान् का युद्ध


यह कथा मत्स्य पुराण में ली गयी हैं। श्री मत्स्य भगवान द्वारा सुनायी गयी कालनेमि और विष्णु भगवान् का युद्ध! 

श्री मत्स्य भगवान ने कहा - उस समय में विपरीत कर्मों के होने के कारण से वेः , धर्म , क्षमा , सत्य और नारायण प्रभु के समाश्रय करने वाली श्री -- ये पांच नहीं रहे थे । 

इन पाँचों के उपस्थित न रहने से वह दानवेश्वर बड़े क्रोध से युक्त हो गया था और फिर भगवान विष्णु को प्राप्त करने की इच्छा करता हुआ नारायण प्रभु के समीप में प्राप्त हो गया था । उसने वहाँ पर सुपर्ण पर समवस्थित - दानवों के विनाश करने के लिए अपनी परम शुभ गदा घुमाते हुए शंख - चक्र और गदा के धारण करने वाले प्रभु को देखा था ।१-३ । 

वहाँ पर नारायण का स्वरूप जल सहित मेघ के समान था — विद्य त तुल्य वसन धारण करने वाला उनका रूप था तथा वे कश्यप के पुत्र - स्वर्ण पक्षों से समन्वित शिखी खग पर समारूढ़ थे ।४ । 

इस तरह के स्वरूप की शोभा से सम स्थित एवं परम स्वरूप और रण में दैत्यों के विनाश करने के लिए उद्यत विष्णु भगवान को देखकर लुब्ध मन वाला वह दानव क्षोभ न करने के योग्य विष्णु भगवान से बोला ।५ । 

यह ही हम लोगों का सच्चा शत्रु है जो हमारे पूर्वजों के प्राणों का नाश करने वाला है तथा अर्णव में आवास करने वाले मधु तथा कैटभ का प्राण लेने वाला में । यही हमारा वह विग्रहहै जो शमन न करने के योग्य कहा जाया करता है । आज इसने ही रणक्षेत्र में बहुत से दानवों का हनन किया है । 

यह वह हैं जो अत्यन्त ही निघृण और स्त्री तथा बालकों में भी निर्लज्ज है जिसने दानवों को नारियों के मन्त्रों का उद्धरण किया था ।८ । यह ही वह विष्णु है जो दिवलोक में रहने वाले देवों का वैकुण्ठ है - योगियों का अनन्त और जल में शयन करने वाला आहा स्वयम् भुव है । 

यह ही व्यथित आत्मा वाले हमारे देवों का नाथ है । इसी के क्रोध की प्राप्ति कर हिरण्यकशिपु मारा गया था ।६-१० । इसी की छत्र छाया का उपाश्रय प्राप्त करके देवगण मखों के मुख में श्रित हुआ हुआ करते हैं और तीन प्रकार से हुत महर्षियों के द्वारा समर्पित -आज्य का अशन किया करते हैं ।११ । समस्त देवों के दुश्मनों के निधन होने में एक ही हेतु है । जिसके चक्र में युद्ध क्षेत्र में हमारे कुल सब प्रविष्ट हो गये हैं अर्थात् सुदर्शन चक्र के द्वारा कुलों के कुल मारे गए - होकर समूल नष्ट हो गए हैं । 

यही वह है जो सुरों के लिए युद्धों में अपना जीवित भी त्याग देने वाला हो जाया करता है और जो सूर्य के तेज के तुल्य अपने सुदर्शन चक्र को शशुओं पर प्रक्षिप्त किया करता है । यह दैत्यो का वह साक्षात् काल हैं जो कि कालभूत होकर समा स्थित रहा करता है । यह केशव अतिक्रान्त कलि का फल प्राप्त करेगा ।१२-१४ ॥

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बड़े हर्ष की बात है कि इस समय में यह विष्णु मेरे समक्ष में समागत हो गया है । आज यह मेरी बाहुओंसे निप्पिष्ट होकर मुझको प्रणाम करेगा । बड़ी ही प्रसन्नता की बात है कि आज युद्ध क्षेत्र में मैं अपने पूर्व पुरुषों की अपिचित को प्राप्त करूंगा अर्थात् उनके साथ किए व्यवहार का बदला ले लूगा । 

आज दानवों को भय देने वाले नारायण का मैं हनन करके ही बदला ले लूगा ।१५-१६ । यह जाति में अन्तरग अर्थात् अन्य जाति वाला विष्णु युद्ध में दानवों को बाधायें दिया करता है । आज में बहुत ही शीघ्र रण में इसके पश्चात् सब देवगणों का भी वध कर डालूगा । यह पहिले अनन्त होकर पद्मनाभ -इस नाम से सुना गया है । इसने ही परम घोर एकाणंव में उन दोनों मधु कैटभ का हनन किया था । पहिले इसने दो प्रकार का शरीर धारण किया था जो आधा तो सिंह का था और आधा नर का था । इसी ने मेरे पिता हिरण्यकशिपु का हनन किया था ।१७-१६ । अदिति ने परम शुभ गर्भ धारण किया था और देवतारणि इसी एक ने तीन पेड़ों के क्रम से क्रममाण होते हुए तीनों लोकों का उद्धरण कर डाला था । पुन : इस समय में इस तारकामय संग्राम के सम्प्राप्त होने पर मेरे साथ समागम करके वह विनष्ट हो जायगा २०-२१ ॥

इस प्रकार से अनेक रीतियों से कहकर तथा नारायण पर रण में आक्षेपों की बौछार करके अप्रतिरूप बाणियों के द्वारा उसने युद्ध करने को ही पसन्द किया था ।२२ । इस तरह उस असुरेन्द्र के द्वारा आक्षिप्त होते हुए भी गदाधारी प्रभु ने कोई क्रोध नहीं किया था और महान क्षमा के बल का सहारा लेते हुए मुस्कराकर यह वचन कहा था ।२३ । दर्प का बल अल्प होता है , हे दैत्य ! जो बिना किसी क्रोध से उत्पन्न होने वाला बल होता है वह स्थिर बल हुआ करता है । तू क्षमा का त्याग करके जो कुछ भी इस समय में बोल रहा है , इन दर्प ( घमण्ड ) से उत्पन्न हुए दोषों से ही हत हो गया है ।२४ । मेरी मति में तो बहुत अधीर है । तेरे इन वचनों के बल को धिक्कार है जहाँ पर कोई बलणाली पुरुष नहीं रहा करते हैं वहाँ पर स्त्रियाँ भी इमी तरह से गर्जना किया करती है ।२५ ॥ 

हे दैत्यराज ! मैं तो तुमको अपने पूर्वज पुनखाओं के ही मार्ग का अनुगमन करने वाला देख रहा हूँ । प्रजापति के द्वारा किए सेतु का भेदन करके कौन पुरुष कल्याण वाला हो सकता है ? अर्थात् वह कभी कल्याणकारी हो ही नहीं सकता है ।२६ । मैं आज ही देवों के व्यापारों के घात करने वाले तुझको नष्ट कर डालूगा और उन देवताओं को उनके अपने -२ स्थानों पर स्थापित कर दुगा ।२७ । उस महान युद्ध क्षेत्र में श्रीवत्स के चिन्ह को धारण करने वाले प्रभु के द्वारा इस प्रकार से बोलने पर वह दानव कालनेमि बहुत हंसा था और उसने बहुत ही क्रोध के अपने हाथों को आयुधों से युक्त कर लिया था ।२८ ।


उस दानव ने उस रण स्थल में सभी प्रकार के अस्त्रों को ग्रहण करने वाले सैकडों बाहुओं को उठाकर क्रोध से द्विगुणित लाल नेत्रों वाले ने भगवान् विष्णु पर उनके वक्षःस्थल पर प्रताड़ित किया था ।२६ अन्य दानव भी जिनमें मय और तार पुरोगामी थे सबने निस्त्रिश और अन्य आयुधों को समुद्यत करके भगवान् विष्णु पर रण में आक्रमणकर दिया था ।३० । 

सब प्रकार के समुद्यत आयुधों वाले अत्यन्त बलशाली दैत्यों के द्वारा इस भांति ताड्यमान होते हुए भी भगवान् विष्णु उस युद्ध में बिना कम्प वाले एक पर्वत की तरह स्थित रहते हुए वहाँ पर बिल्कुल भी चलित नहीं हुए थे ।३१ । विष्णु प्रभु सुपर्ण पर ही संसक्त थे कि महासुर उस कालनेमि ने अपना पूर्ण जोर लगाकर प्राणपण से महान विशाल गदा को बाहुओं से उठाकर जो कि अत्यन्त घोर और जाज्वल्यमान थी बहुत ही संरब्ध होते हुए गरुड़ के ऊपर उसे छोड़ दिया था । दैत्यके उस कमसे भगवान् विष्णु को भी बड़ा विस्वय हो गया था।३२-३३ . 

जिस समय में उस दानव ने सुपर्ण के मस्तक पर उस महती गदा को पातित किया था । सुपर्ण को देखकर उन्होंने अपना वपु व्यथित कर दिया था फिर महान् क्रोधसे संरक्त नयनोंबाला होकर भगवान् वैकुण्ठनाथ ने अपना चक्र ग्रहण किया था और सुपर्ण के साथ ही वह विभु आगे को बढ़ गए थे ।३४-३५५

इनकी भुजायें दशों दिशाओं में व्यापक होती हुई बढ़ गयी थीं और भगवान् केशव ने उनको सब प्रदिशाओं में - भूमि तथा आकाश में पूरित कर दिया था ।३६ । फिर महान ओज से समस्त लोकों का क्रमण करने की इच्छा वाले प्रभु और भी वधित हो गये थे तथा नभ स्तल में भी उन असुरेन्द्रों से तर्जन के लिए वे वर्तमान हो गये थे अध्बरों के द्वारा अभ्र रहित अम्बर की भांति किरीट के द्वारा सबका स्पर्श करते हुए वे उस समय में हो गए थे तथा वहाँ पर मधुसूदन प्रभु का संस्तवन ऋषिगण और गन्धर्व लोग करने लगे थे ।३७-३८ । 

प्रभु ने अपने चरणों से सम्पूर्ण वसुधा को समाक्रान्त करके बाहुओं से सभी दिशाओं को प्रच्छादित कर दिया था तथा उनने फिर सूर्य को किरणों के तुल्य आभा बाले - सहस्र अरों से समन्वित और अरियों के क्षय को करने वाले उस चक्र को प्रयुक्त किया था ।६६ । 

वह चक्र दीप्त अग्नि के समान महान घोर था तथा देखनेसे वह बहुत सुन्दर दर्शनवाला अर्थात् सुदर्शन नामधारी था । सुवर्ण रेणुपर्यन्त - वज्रनाभ - भयों का अपहरण करने वाला - दानवों के शरीरों से समुत्पन्न मेदा , अस्थि , मज्जा तथा रुधिर से सिक्त - क्षुर पर्यन्त मण्डल वाला - एक परम अद्वितीय प्रहरण ( अस्त्र ) -प्रगदाम ( मालाएँ ) से बिनत -- स्वेच्छया गमन करने वाला कामरूपी - समस्त शत्रुओं को भय देने वाला और स्वयंभू प्रभ के द्वारा वह सृजित किए जाने वाला था ।४०-४२ ।

वह अपर बतलाये गुणगणों वाला मुदर्शन चक्र महषियों रोषों से समाविष्ट था और नित्य ही युद्ध में दर्प से समायुक्त रहने वाला था । जिसके क्षेपण करने से सभी स्थावर एवं जङ्गम लोक मूछित हो जाया करते हैं । महान युद्ध में व्याद आदि जो भूत हैं वे उस चक्र के द्वारा प्रवाहित हुए शत्रुओं के रक्त के पान से परम : तृप्ति को प्राप्त हुआ करते हैं ऐसे उस अनुपम कर्म के करने से उग्र और सूर्य के वर्चस के तुल्य उस अपने सुदर्शन चक्र को उठाकर समर में क्रोध से दीप्त गदाधर ने छोड़कर अपने तेज के द्वारा युद्धस्थल में दानवों के तेज का छेदन कर दिया था और श्रीधर प्रभु ने उस अपने चक्र से कालनेमिकी बाहुओं को भी काट डाला था । 

उस दानव के अग्नि से परिपूर्ण अट्ट हास वाले सो परम घोर मूखों का श्री हरि ने उसी चक्र के द्वारा बल पूर्वक प्रमथन कर दिया था । किन्तु वह दानव बाहुओं और शिर के कट जाने पर भी वहां पर प्रकम्पित नहीं हुआ था । उसका वह कबन्ध ( घड़ ) युद्ध स्थल में बिना शाखा वाले पदप के समान अवस्थित था । 

गरुड़ ने अपने पंखों को फैलाकर तथा वायु के समान वेग को करके अपने उर - स्थल के द्वारा उस कालनेमि के धड़ को नीचे गिरा दिया था और उसका बह बिना मुख तथा बाहुओं वाला देह इधर - उधर परिभ्रमण कर रहा था।४३-४६ । 

वह धरणी तल को क्षोभित करता दिवलोक को त्याग कर के भूमि पर गिर गया था । उस समय में उस महा दानेश्वर के निप तित हो जाने पर समस्त देवगण और ऋषि वृन्द ' साधु - साधु ' अर्थात बहुत ही अच्छा हुआ यह कहते हुए सब एकत्रित होकर भगवान वैकुण्ठ नाथ की पूजा करने लगे थे । 

युद्ध में दैत्यगण पराक्रम देख लेने वाले अपसर्पण कर जावे । किन्तु बाहुओं से व्याप्त वे सब रणस्थल में चल नहीं सकते थे । उनमें से कुछ को तो केश पकड़ कर ग्रहण किया था और कुछ को कण्ठों में ताड़ित किया था ।५०-५२ । 

किसी के मुख को पकड़कर कर्षित किया था और दूसरे को मध्य भाग में ग्रहण किया था । वे सब गदा और चक्र के प्रहारों से निर्दग्ध - गत प्राण और हीन तत्वों वाले हो गये थे ।५३ । गगन से उभ्रष्ट अङ्गों वाले धरणी तल में सब निपतित हो गये थे । उन सब दैत्यों के निहत हो जाने पर पुरुषोत्तम प्रभु गदाधारों महेन्द्र का कर्म सम्पादन करके तथा इन्द्र का प्रियकर्म करके उस विमर्द तारकामय संग्राम के निवृत होने पर वहाँ पर ही समवस्थित हो गये थे । उसी स्थल पर लोकों के पितामह ब्रह्माजी समस्त ब्रह्मर्षिगण और गन्धर्व एवं अप्सरागणों के साथ शीघ्र ही आकर उपस्थित हो गये थे ।५४-५६ ॥

देवों के देव श्री हरिदेव का अभ्यर्चन करते हुए यह वाक्य कहा था कि हे देव ! आपने बहुत बड़ा कर्म सम्पादित किया है और सुर गणों के शल्य को आपने उद्धृत कर डाला है । दैत्यो के इस बध से आपने हम सबको परितोषित कर दिया है जो कि हे विष्णो ! आपने इस महासुर कालनेमि को निहत कर डाला है ।५७-५८ । 

इस युद्ध में आपही एक इसके हनन करने वाले ये अन्य कोई भी आपके अतिरिक्त नहीं है । इससे सब वेदों को परिभूत कर दियाहे और सुरों एवं असुरों के सहित लोको का भी परिभव किया है । यह ऐसा दुष्ट था कि यह ऋषियों का कवन करके मुझको भी अपनी गर्जना दिखाता था । आप के अत्युत्तम इस कर्म से मैं बहुत ही परितुष्ट हुआ हूँ।५६-६० । 

जो यह काल के सदृश कालनेमि आपके द्वारा निपतित हुआ है यह बहुत ही अच्छा हो गया । अब आप पधारिए आप का परम मङ्गल होवे अब हमभी उत्तम दिवलोक को चलते हैं । वहाँ पर सदोगत समुपस्थित ब्रह्मर्षि गण आपकी प्रतिक्षा कर रहे हैं । हे वरदान देने वालों में परम श्रेष्ठ ! मैं आपको कौन - सा वरदान दूंगा । आप सुरों में और दैत्यों में वरदानों को प्रदान करने वाले वरद है । इस परम विस्तृत प्रैलोक्य को निहत कण्टक वाला निर्यात कर डालिए ।६१-६३ ।

हे विष्णो ! इसी युद्ध में आपने महान आत्मा वाले इन्द्र के लिए यह सब कर दिया है । इस प्रकार से भगवान ब्रह्माजी के द्वारा भाव नाशी श्री हरि से कहा गया था । तब श्री हरि ने इन्द्र जिनमें प्रधान वे उन समस्त देवों से परम शुभ वाणी में कहा था - विष्णु भगवान ने कहा था - अब सब देवगण श्रवण करलो जितने यहाँ पर इस समय में समागत हुए हैं ।६४-६५ । 

श्रवण में परम समाहित श्रोत्रों से पुरन्दर को आसे करके हमने समर में कालनेमि प्रमुख सब दानव निहत कर दिए थे । ये समस्त दानव विक्रम से उपेत थे तथा इन्द्र से भी महत्तर थे । इस महान संग्राममें दो दैतेय विनिःसृत हुए थे।६६-६७ । 

एक तो दैत्येन्द्र विरोचन था दूसरा महान ग्रह स्वर्भानु था । अब इन्द्र अपनी दिशा को सेवन करे और वरुण अपनी दिशा को चले जावें ।। याम्य दिशा में यम चले जावें । धनाधि उत्तर दिशा में यम चले जावें । ऋक्षों के सहित यथा योग चन्द्रमा भी चले जावें । ऋतुमुख में अनों के सहित सूर्य शब्द का सेवन करे । सदस्योंके द्वारा अभिपूजित आज्यभाग प्रवृत्त हो जावें ।६ ९ -७० ।

वेदों के द्वारा दुष्ट कर्म से विप्रों के द्वारा अग्नियों में हवन किया जाये । अग्नि के होम म देवगण - स्वाध्याय से महर्षि गण और श्राद्ध से पितृगण सुखपूर्वक तृप्तिको प्राप्तकरें । वायु अपने मार्ग में स्थित होकर सञ्चरण करें और पावक तीन प्रकार दीप्त होवे दक्षिणीय द्विजातियों के द्वारा ऋतुगण तीन वर्णोको और तीन लोकोंको अपने गुणों से तृप्ति करते हुए सम्प्रवृत्त होवें ।७१-७३ । 

याज्ञिकों के लिए पृथक -२ दक्षिणायें उत्पन्न होवें । सूर्य गो को सोम रसों को और वायु प्राणियों में प्राणों को प्रदान करें । सभी अपगे - अपने कर्मों के द्वारा तृप्त करते हुए प्रवृत्त होवें । यथावत् आनुपूर्वी से महेन्द्र और मलय में उद्भव पाने वाले स्वकर्मोसे तृप्ति देते हुए प्रतित हो जावें । त्रैलोक्य की माताए ' समस्त सिन्धु समुद्र में गमन करें । सब देवता लोग अब दैत्यों के द्वारा होने वाले भयका त्याग कर देखें । और सबका कल्याण होवे । अब मैं सनातन ब्रह्मलोक को गमन करूगा । अथवा घर में- स्वर्ग लोक में तथा विशेष रूप से संग्राम में गमन करूंगा ।७४-७७ ॥ 


आपको विधम्भ नहीं मानना चाहिए । ये दानव नित्य ही क्षुद्र हैं । छिद्रों में ही प्रहार किया करते हैं और उनकी संस्थिति निश्चित नहीं है ।७८ । आप लोग परम सौम्य तथा सरल भावों वाले हैं । आपका आर्जव ( सरलता ) ही धन है । इस प्रकार से सत्य पराक्रम वाले भगवान विष्णु ने सुर - गणों से कहकर फिर महान यश वाले वे ब्रह्माजी के साथ ही स्वर्गलोक को चले गये थे । उस तारकामय संग्राम में यह एक आश्चर्य हो गया था जिसको दानवों का और भगवान् विष्णु का ही कहना चाहिए और यही आपने मुझसे पूछा था ।७६ ८० ॥


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