भविष्य पुराण में संत कबीर जी की गाथा,प्रतिसर्गपर्व , चतुर्थ खण्ड

 भविष्य पुराण में संत कबीर जी की गाथा


bhavishya puran me kabir ji ki katha -

भविष्य पुराण में संत कबीर जी की गाथा :-

भविष्य पुराण के प्रतिसर्गपर्व , चतुर्थ खण्ड में संत कबीर जी की कथा बताई गयी है :-

संत कबीर , भक्त नरसी मेहता , पीपा , नानक तथा साधु नित्यानन्दजीके पूर्वजन्मों की कथा देवगुरु बृहस्पति जी बोले- देवेन्द्र ! पूर्वकालमें दिति के पुत्र हिरण्यकशिपु एवं हिरण्याक्षका भगवान् विष्णु ने क्रमशः नृसिंह एवं वराहरूप धारणकर वध किया था । दु : खी हो दितिने महर्षि कश्यपकी आराधना की बारह वर्ष बाद कश्यपजी ने उससे कहा ' वरानने ! वर माँगो । ' हर्षित होकर दितिने कहा ' प्रभो ! मेरी सपत्नी अदिति बारह पुत्रों से युक्त है । मेरे दो ही पुत्र थे । वे भी अदितिपुत्र देवरक्षक विष्णुके द्वारा विनष्ट कर दिये गये । इस कारण मैं बहुत दुःखी हूँ । अतः मुझे द्वादशादित्य - विनाशक पुत्र प्रदान करें । ' 

यह भयंकर वाणी सुनकर कश्यप ने कहा - ' ब्रह्मा ने संसार में दो मार्ग बनाये- धर्ममार्ग और अधर्ममार्ग । जिन्हें क्रमश : परमार्ग और अपरमार्ग भी कहा गया है । धर्म का पक्ष लेनेवाले मनुष्य ब्रह्मा के प्रिय हैं और अधर्मका पक्ष लेने वाले उस धीमान्‌ के वैरी हैं । अत : अधर्म के पक्षपाती होनेके कारण ही तुम्हारे पुत्रों की मृत्यु हुई इसलिये धर्म प्रिये तुम अपने विचार को शुद्ध करो तुम्हें महाबलशाली चिरञ्जीवी , बुद्धिमान् पुत्र होगा ।

 यह सुनकर दितिदेवी कश्यप के द्वारा उत्तम गर्भ धारण कर व्रत - आचारपूर्वक जीवन यापन करने लगी । उसके गर्भ धारण करनेके कारण भयभीत देवराज इन्द्र देवगुरु को आज्ञासे दिति को व्रत - परिचर्या में लग गये । गर्भ के सात मास बीत जानेपर शक्र की मायासे विमोहित वह दितिदेवी अपने घरमें अपवित्र रूप से सो गयी । 

उसी समय अनुष्ठमात्रका रूप बनाकर वज्र के साथ भगवान् महेन्द्र ने दितिके उदर में प्रविष्ट हो उस गर्भ के पहले सात और फिर एक - एक के सात - सात खण्ड - खण्ड कर डाले महेन्द्र ने उन लोगों को नम्रीभूत देखकर उनके साथ गर्भ से बाहर आकर दिति को प्रणाम किया । दिति ने प्रसन्न होकर महेन्द्र को उन देवताओं को दे दिया । 

इस प्रकार वे उनचास मरुद्रण शक्र के सेवक हो गये । वे मरुत् पूर्व भवमें लोकविश्रुत अनिल नामक वेदज्ञ ब्राह्मण हुए उस विप्रने पावकको स्तुतियों द्वारा संतुष्ट किया वह अपने सिर को काट - काटकर अग्निको चढ़ाता था और पुनः उसका सिर उत्पन्न हो जाता था इस प्रकार आराधना करनेपर धनञ्जयदेव प्रसन्न हुए और बोले कि तुम उनचास मरुद्रणों के रूपमें हो जाओगे तब मैं तुम्हारा मित्र होकर तुम्हारी कामनाको पूर्ण करूंगा ।

 जैसे भगवान् कुबेर छब्बीस वरुणदेवों के प्रिय हैं वैसे उनचास रूपधारी तुम्हारा मैं मित्र होऊँगा । इस प्रकार दिति के उदरमें पावक के प्रिय मित्रके रूपमें वायु नाम से उत्पन्न हुए । 

सूतजी ने कहा- मुने ! देवगुरु बृहस्पतिसे इतनी कथा सुननेके बाद वही वायु वैश्यजातीय धान्यपालके घरमें मूलगण्डान्तमें उत्पन्न हुआ । पिता और माताने काशीके विन्ध्यवनमें उसे छोड़ दिया । 

वहाँ पर एक निःसंतान अलिक नामका वस्त्रनिर्माता ( जुलाहा ) व्यक्ति आया और उस बालकको लेकर अपने घर आ गया । वह सुन्दर मुखवाला बालक ' कबीर ' नामसे प्रसिद्ध हुआ गोदुग्ध - पान करने वाले उस बालकने सात वर्ष की अवस्थामें रामानन्दको गुरु माना और वह भगवान् श्रीराम के ध्यान में परायण हो गया वह अपने हाथ से भोजन निर्माणकर भगवान् विष्णु को समर्पित करता था । 

उसका प्रिय करनेके लिये भगवान् साक्षात् उसकी इच्छाएँ पूरी करने लगे । देवगुरु बृहस्पतिजी बोले देवेन्द्र प्राचीन काल में उत्तानपाद नामके एक क्षत्रिय राजा थे उनका पुत्र ध्रुव नाम से विख्यात हुआ पिता - मातासे परित्यक्त उस पाँच वर्षके बालक ध्रुवने देवर्षि नारदजीके उपदेशसे गोवर्धन पर्वतपर आकर महान् व्रत धारणकर छ : महीनेतक भगवान्का ध्यान किया भगवान् विष्णु ने प्रसन्न होकर आकाशमण्डल में उसे नभोमय स्थान दिया यह ध्रुव पूर्व भव में माधव नामक एक ब्राह्मण था साठ वर्षों तक उसने प्रातःकाल तीथों में स्नान किया था । 

तीर्थ सेवनके पुण्य प्रतापसे वह भगवान् माधवका प्रिय पात्र बन गया । वह माधव भगवान्की भक्ति एवं तपस्या के फल से अगले जन्ममें सुनीतिके गर्भ से ध्रुवरूप में उत्पन्न हुआ छत्तीस वर्षतक राज्यकर ध्रुव नभोमण्डलमें स्थित हो गया । 

सूतजी ने कहा- मुने बृहस्पतिकी बात सुनकर पाँचवाँ वसु वह ध्रुव अपने अंशसे गुजरात प्रान्तमें भक्त नरश्री ( नरसी मेहता ) के रूप में उत्पन्न हुआ । 

भगवान् शंकर के अनुग्रह से इन्होंने वृन्दावन में भगवान्की दिव्य रासलीलाओं का दर्शन किया था । इनके पुत्री पुत्र के विवाह के समय भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण बृहस्पतिजी बोले – देवेन्द्र ! किसी समय गङ्गाके तटपर पतिव्रता अनसूयाके साथ भगवान् अत्रि यादवोंके साथ आये और उनकी इच्छाओं को पूरा  किया । परम वैष्णव भक्तराट् नरश्री काशीपुरी में आकर रामानन्दके शिष्य हो गये । आकर ध्यान में समाधिस्थ हो गये । 

वहाँ ब्रह्मा विष्णु और महेश ने आकर कहा - ' वर माँगो अत्रिमुनि परमात्माके ध्यानमें लीन थे । अतः कुछ भी नहीं बोले । वे तीनों उनके भावको समझकर उनकी पत्नी अनसूयादेवी के पास गये । पतिव्रताने देवोंके अन्यथा भावको समझकर पुत्र रूप होनेका शाप दे दिया । फलतः अत्रिके पुत्ररूपमें ब्रह्मा चन्द्रमा , शंकर दुर्वासा और विष्णु दत्तात्रेयके रूप में बालक हो गये । 

बाद में ये ही क्रमशः अर्थात् चन्द्रमा सोम नामक छठे वसु , रुद्रांश दुर्वासा सातवें प्रत्यूष नामक वसु और विष्णु अंश दत्तात्रेय प्रभास नामक आठवें वसु हुए । 

सूतजीने कहा- मुने ! बृहस्पतिकी यह बात  सुनकर वे तीनों वसु कलिकी शुद्धिके लिये अपने अंशसे पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए । छठे वसु अर्थात् भगवान् अत्रिपुत्र सोम दक्षिण में वैश्यवंश में राजा सुदेवके पीपा नामक पुत्र हुए । 

जैसे राजा ने उस नगर में राज्य किया था , वैसे ही इन्होंने भी राज्य किया और वे रामानन्द के शिष्य हो द्वारका में चले आये । भगवान् कृष्णद्वारा प्रेतत्त्वविनाशिनी स्वर्णमयी हरि की मुद्रा को प्राप्त कर उसे उसने वैष्णवों को प्रदान कर दिया । 

अत्रिपुत्र रुद्र के अंश सप्तम वसु अर्थात् प्रत्यूष पाञ्चाल देश में वैश्यजातिमें मार्गपालके पुत्र हो नानक नाम से प्रसिद्ध हुए । रामानन्दके पास आकर नानक उनके शिष्य हो गये । उन्होंने म्लेच्छोंको वशमें करके सूक्ष्ममार्ग दिखाया । अष्टम वसु प्रभास शान्तिपुरमें ब्राह्मण जातिमें उत्पन्न हुए । वे शुक्लदत्तके पुत्र नित्यानन्दके नामसे प्रसिद्ध हुए । शौनक ! इस प्रकार मैंने आपको वसुदेवताओंका माहात्म्य बतलाया ।




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