कौन केदार पर्वत पर मिट्टी का शिवलिंग बनाया ?

केदार पर्वत के शिवलिंग का वर्णन


यो श्वते निजमाव भुनमाकार विकारोशितो यसपाहुः करुणाकरावविभयौं स्त्रांपञ्चगाभियो । 

प्रत्यायोधसुखाइल गदि रादा पश्यन्ति यं योगिन- स्तस्मै दौलमुताशिवपुषे शवनमस्तेजसे ॥१ 

जो निर्विकार होते हुए भी अपनी मायासे ही विराट् विश्वका आकार धारण कर लेते हैं , स्वर्ग और अपवर्ग ( मोक्ष ) जिनके कृपा- कटाक्षके ही वैभव बताये जाते हैं तथा योगीजन जिन्हें सदा अपने हृदयके भीतर अद्वितीय आत्मज्ञानानन्दस्वरूपमें ही देखते हैं , उन तेजोमय भगवान् शंकरको , जिनका आधा शरीर शैलराजकुमारी पार्वतीसे सुशोभित है , निरन्तर मेरा नमस्कार है ।॥ १ ॥ 


कृपाललितवीक्षण सितमनोपपताम्बुज शाक्योज्ज्वल शामिनयोरतापत्रयम् । कोतु स्फुरत्या सौख्यसमिस धंग्रधरसुताभुजोइलायत महो मङ्गलम् ॥२ ॥ 

जिसकी कृपापूर्ण चितवन बड़ी ही सुन्दर है , जिसका मुखारविन्द मन्द मुस्कान की छटा से अत्यन्त मनोहर दिखायी देता है , जो चन्द्रमा की कलासे परम उज्वल है , जो आध्यात्मिक आदि तीनों तापोंको शान्त कर देने में समर्थ है , जिसका स्वरूप सचिन्मय एवं परमानन्दरूपसे प्रकाशित होता है तथा जो गिरिराजनन्दिनी पार्वतीके भुजपाशसे आयेष्टित हैं , वह शिवनामक कोई अनिर्वचनीय तेज : पुन सबका मङ्गल करे ॥२ ॥ । 

ऋषि बोले - सूतजी ! आपने सम्पूर्ण लोकोंके हितकी कामना से नाना प्रकारके आख्यानोंसे युक्त जो शिवावतार का माहत्य बताया है , वह बहुत ही उत्तम है । तात ! आप पुनः शिवके परम उत्तम माहात्म्यका तथा शिवलिङ्गकी महिमाका प्रसन्नतापूर्वक वर्णन कीजिये । 

आप शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ हैं , अतः धन्य है । प्रभो ! आपके मुखारविन्दसे निकले हुए भगवान् शिवके सुरम्य यशरूपी अमृतका अपने कर्णपुटोद्वारा पान करके हम तृप्त नहीं हो रहे हैं , अतः फिर उसीका वर्णन कीजिये । व्यासशिष्य ! भूमण्डलमें , तीर्थ तीर्घमें जो - जो शुभ लिङ्ग हैं अथवा अन्य स्थलोंमें भी जो - जो प्रसिद्ध शिवलिङ्ग विराजमान हैं , परमेश्वर शिवके उन सभी दिव्य लिङ्गोका समस्त लोकोंके हितकी इच्छासे आप वर्णन कीजिये । 

शिवलिंग का वर्णन:-

सूतजीने कहा - महर्षियो ! सम्पूर्ण तीर्थ लिङ्गमय है । सब कुछ लिङ्गमें ही प्रतिष्ठित है । उन शिवलिङ्गोको कोई गणना नहीं है , तथापि मैं उनका किंचित् वर्णन करता हूँ । जो कोई भी दृश्य देखा जाता है तथा जिसका वर्णन एवं स्मरण किया जाता है , वह सब भगवान् शिवका ही रूप है । कोई भी बस्तु शिवके स्वरूप से भिन्न नहीं है ।साधुशिरोमणियो । 

भगवान् शम्भु ने सब लोगों पर अनुग्रह करनेके लिये ही देवता , असुर और मनुष्योसहित तीनों लोको को लिङ्गरूप से व्याप्त कर रखा समस्त लोकोपर कृपा करनेके उद्देश्यसे ही भगवान् महेश्वर तीर्थ - तीर्थम और अन्य स्थलों में भी नाना प्रकारके लिङ्ग धारण करते हैं । जहाँ - जहाँ जब - जब भक्तोंने भक्तिपूर्वक भगवान् शम्भुका स्मरण किया , तहाँ - तहाँ तब - तब अवतार ले कार्य करके वे स्थित हो गये ; लोकोका उपकार करनेके लिये उन्होंने स्वयं अपने स्वरूपभूत लिङ्गकी कल्पना की । उस लड़की पूजा करके शिवभक्त पुस्य अवश्य सिद्धि प्राप्त कर लेता है । ब्राहाणो ! भूमण्डल में जो लिङ्ग है , उनकी गणाना नहीं हो सकती ; तथापि में प्रधान - प्रधान शिवलिङ्गोंका परिचय देता हूँ । मुनिश्चेष्ठ - शौनक ! इस भूतलपर जो मुख्य - मुख्य ज्योतिर्लिङ्ग है , उनका आज मैं वर्णन करता हूँ । 

उनका नाम सुनने-मानसे पाप दूर हो जाता है । 

द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों के नाम और उनके नाम लेने से कौन सा फल मिलता हैं:-

सौराष्ट्र में सोमनाथ , श्रीशैल पर मल्लिकार्जुन ' , उजैनी में महाकाल ' , ओंकारतीय परमेश्वर हिमालयके शिखरपर केदार ' , डाकिनी में भीमशङ्कर वाराणसी में विश्वनाथ गोदावरी के तटपर अम्बक , चिताभूपिमे वैद्यनाथ ' , दारुकावनमें नागेश " , सेतुबन्धमें रामेश्वर " तथा शिवालयमें पुश्मेश्वर का स्मरण करे । 

जो प्रतिदिन प्रात : काल उठकर इन बारह नामों का पाठ करता है , वह सब पापोंसे मुक्त हो सम्पूर्ण सिद्धियोका फल प्राप्त कर लेता है ।

 मुनीश्वरो ! जिस - जिस मनोरथको पानेकी इच्छा रखकर श्रेष्ठ मनुष्य इन बारह नामोंका पाठ करेंगे , वे इस लोक और परलोकमे उस मनोरथको अवश्य प्राप्त करेंगे । जो शुद्ध अन्तःकरणबाले पुरुष निष्काम भावसे इन नामोंका पाठ करेंगे , उन्हें कभी माताके गर्भ में निवास नहीं करना पड़ेगा । इन सबके पूजनमानसे ही इहलोक समस्त वर्णोके लोगोके दुःखोंका नाश हो जाता है और परलोकमें उन्हें अवश्य मोक्ष प्राप्त होता है । 

इन बारह ज्योतिर्लिङ्गोका नैवेद्य यतापूर्वक ग्रहण करना ( खाना ) चाहिये । ऐसा करनेवाले पुरुषके सारे पाप उसी क्षण जलकर भस्म हो जाते हैं । यह मैंने ज्योतिर्लिङ्गोंके दर्शन और पूजनका फल बताया । अब ज्योतिलिङ्गोके उपलिङ्ग बताये जाते हैं । मुनीश्वरो ! ध्यान देकर सुनो । सोमनाथका जो उपलिङ्ग है उसका नाम अन्तकेश्वर है । 

यह  द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों कहा पर स्थित हैं और किस नाम से प्रसिध् हैं? 

वहाँ उपलिङ्ग महीं नदी और समुद्र के संगमपर स्थित है मल्लिकार्जुनसे प्रकट उपलिङ्ग रुद्रेश्वरके नामसे प्रसिद्ध है । वह भाकक्षमें स्थित है और उपासकोंको सुख देनेवाला है ।

 महाकालसम्बन्धी उपलिङ्ग दुग्धेश्वर या दूधनाथके नामसे प्रसिद्ध है । वह नर्मदाके तटपर है तथा समस्त पापोंका निवारण करनेवाला कहा गया है । 

ओंकारेश्वर सम्बन्धी उपलिङ्ग कर्दमेश्वरके नामसे प्रसिद्ध है । वह बिन्दु सरोवरके तटपर है और उपासकको सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फल प्रदान करता । 

केदारेश्वरसम्बन्धी उपलिङ्ग भूतेश्वरके नामसे प्रसिद्ध है और अमुना तटपर स्थित है । 

जो लोग उसका दर्शन और पूजन करते हैं , उनके बड़े - से - बड़े पापोंका बह निवारण करनेवाला बताया गया है ।

 भीमशंकरसम्बन्धी उपलिङ्ग भीमेश्वरके नामसे प्रसिद्ध है । वह भी सहा पर्वतपर ही स्थित है और महान बलको वृद्धि करनेवाला है । 

नागेश्वरसम्बन्धी उपलिङ्गका नाम भी भूतेश्वर ही है , यह मल्लिका सरस्वतीके तटपर स्थित है और दर्शन करनेमात्रसे सब पापोंको हर लेता है । 

रामेश्वरसे प्रकट हुए उपलिङ्गको गुप्तेश्वर और घुश्मेश्वरसे प्रकट हुए उपलिङ्गको व्यानेश्वर कहा गया है । ब्राह्मणो ! इस प्रकार यहाँ ज्योतिलिङ्गाके उपलिङ्गोका परिचय दिया ।  

ये दर्शनमात्रसे पापहारी तथा सम्पूर्ण अभीष्टके दाता होते हैं । मुनिवरो ! ये मुख्यताको प्राप्त हुए प्रधान - प्रधान शिवलिङ्ग बताये गये । 


कौन केदार पर्वत पर मिट्टी का शिवलिंग बनाया ?

कहानी:-

सूतजी कहते है - ब्राह्मणो ! भगवान् विष्णु के जो नर - नारायण नामक दो अवतार हैं और भारतवर्ध के बदरिकाश्रमbतीर्थ में तपस्या करते हैं , उन दोनोंने पार्थिव शिवलिङ्ग बनाकर उसमें स्थित हो पूजा ग्रहण करने के लिये भगवान् शम्भुसे प्रार्थना की । 

शिवजी ने प्रसन्न होकर क्या वर दिया:-

शिवजी भक्तोंके अधीन होनेके कारण प्रतिदिन उनके बनाये हुए पार्थिवलिङ्ग में पूजित होने के लिये आया करते थे । जब उन दोनोंके पार्थिव - पूजन करते बहुत दिन बीत गये , तब एक समय परमेश्वर शिवने प्रसन्न होकर कहा- - मैं तुम्हारी आराधनासे बहुत संतुष्ट हूँ । 

तुम दोनों मुझसे वर मांगो । ' उस समय उनके ऐसा कहनेपर नर और नारायणने लोगोंके हितकी कामनासे कहा - ' देवेश्वर ! यदि आप प्रसन्न है और यदि मुझे वर देना चाहते है तो अपने स्वरूपसे पूजा ग्रहण करने के लिये यही स्थित हो जाइये । ' 

उन दोनों बन्धुओके इस प्रकार अनुरोध करनेपर कल्याणकारी महेश्वर हिमालयके उस केदारतीर्थमें स्वयं ज्योतिर्लिङ्गके रूपमें स्थित हो गये । उन दोनोंसे पूजित होकर सम्पूर्ण दुःख और भयका नाश करनेवाले शम्भु लोगोका उपकार करने और भक्तोंको दर्शन देनेके लिये स्वयं केदारेश्वरके नामसे प्रसिद्ध हो वहाँ रहते हैं । 

वे दर्शन और पूजन करनेवाले भक्तोंको सदा अभीष्ट वस्तु प्रदान करते हैं । उसी दिनसे लेकर जिसने भी भक्तिभावसे केदारेश्वरका पूजन किया उसके लिये स्वप्नमें भी दुःख दुर्लभ हो गया जो भगवान् शिवका प्रिय भक्त वहाँ शिवलिङ्गके निकट शिबके रूपसे अङ्कित वालय ( कङ्कण या कड़ा ) चढ़ाता है , वह उस वलययुक्त स्वरूपका दर्शन करके समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है , साथ ही जीवन्मुक्त भी हो जाता है । जो बदरीवनकी यात्रा करता है , उसे भी जीवन्मुक्ति प्राप्त होती हैं । 

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नर और नारायणके तथा केदारेश्वर शिवके रूप का दर्शन करके मनुष्य मोक्षका भागी होता है , इसमें संशय नहीं है । केदारेश्वरमें भक्ति रखनेवाले जो पुरुष वहाँकी यात्रा आरम्भ करके उनके पासतक पहुँचने के पहले मार्गमें ही मर जाते हैं , वे भी मोक्ष पा जाते हैं - इसमें विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है ।

 केदारतीर्थमें पहुँचकर वहाँ प्रेमपूर्वक केदारेश्वरकी पूजा करके वहाँका जल पी लेनेके पश्चात् मनुष्यका फिर जन्म नहीं होता । ब्राह्मणो ! इस भारतवर्ष में सम्पूर्ण जीवोंको भक्तिभावसे भगवान् नर - नारायणकी तथा केदारेश्वर शम्भुकी पूजा करनी चाहिये । 

भीमशंकर नामक ज्योतिर्लिङ्ग की कथा और  माहात्म्य :-

 देश में कामरूप लोकहित की कामनाbसे साक्षात् भगवान् शंकर ज्योतिर्लिङ्गके रूपमें अवतीर्ण हुए थे । उनका वह स्वरूप कल्याण और सखका आश्रय है । ब्राह्मणो ! पूर्वकालमें एक महापराक्रमी राक्षस हुआ था , जिसका नाम भीम था । वह सदा धर्मका विध्वंस करता और समस्त प्राणियोंको दुःख देता था । वह मझवली राक्षस कुम्भकर्ण के वीर्य और कर्कटी के गर्भ से उत्पन्न हुआ था तथा अपनी माताके साथ सहा पर्वतपर निवास करता था । एक दिन समस्त लोकोंको दुःख देनेवाले भयानक पराक्रमी दुष्ट भीमने अपनी मातासे पूछा - ' माँ ! मेरे पिताजी कहाँ है ? तुम अकेली क्यों रहती हो ? मैं यह सब जानना चाहता । अतः यथार्श्व बात बताओ । ' 

कर्कटी बोली - बेटा ! रावण के छोटे भाई कुम्भकर्ण तेरे पिता थे । भाईसहित उस महाबली वीरको श्रीरामने मार डाला । मेरे पिताका नाम कर्कट और माताका नाम पुष्कसी था । विराध मेरे पति थे , जिन्हें पूर्वकालमें राम ने मार डाला । अपने प्रिय स्वामीके मारे जानेपर मैं अपने माता - पिताके पास रहती थी ।

कहानी:-

 एक दिन मेरे माता - पिता अगस्त्य मुनिके शिष्य सुतीक्ष्णको अपना आहार बनानेके लिये गये । वे बड़े तपस्वी और महात्मा थे । उन्होंने कुपित होकर मेरे माता - पिताको भस्म कर डाला । वे दोनों पर गये । तबसे मैं अकेली होकर बड़े दुःखके साथ इस पर्वतपर रहने लगी । मेरा कोई अवलम्ब नहीं रह गया । मैं असहाय और दुःखसे आतुर होकर यहाँ निवास करती थी । 

इसी समय महान् बल - पराक्रमसे सम्पन्न राक्षस कुम्भकर्ण जो रावण के छोटे भाई थे , यहाँ आये । उन्होंने बलात् मेरे साथ समागम किया । फिर वे मुझे छोड़कर लङ्का चले गये । तत्पश्चात् तुम्हारा जन्म हुआ । तुम भी पिताके समान ही महान् बलवान् और पराक्रमी हो । 

अब मैं तुम्हारा ही सहारा लेकर यहाँ कालक्षेप करती हूँ । सूतजी कहते -ब्राह्मणो ! कर्कटीको यह बात सुनकर भयानक पराक्रमी भीम कुपित हो यह विचार करने लगा कि ' मैं विष्णुके साथ कैसा बर्ताव कसै ? इन्होंने मेरे पिताको मार डाला । 

मेरे नाना - नानी भी उनके भक्तके हाथसे मारे गये । विरानको भी इन्होंने ही मार डाला और इस प्रकार मुझे बहुत दुःख दिया । यदि मैं अपने पिताका पुत्र हूँ तो श्रीहरिको अवश्य पीड़ा दूंगा । ' ऐसा निश्चय करके भीम महान तप करनेके लिये चला गया । उसने ब्रह्माजीकी प्रसन्नताके लिये एक हजार वर्षोंतक महान् तप किया । तपस्याके साथ - साथ वह मन- ही - मन इष्टदेवका ध्यान किया करता था तब लोकपितामह ब्रह्मा उसे वर देनेके लिये गये और इस प्रकार बोले । ब्रह्माजीने कहा - भीम ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ तुम्हारी जो इच्छा हो , उसके अनुसार वर मांगो ।

 भीम बोला - देवेश्वर ! कमलासन ! यदि आप प्रसन्न हैं और मुझे वर देना चाहले हैं तो आज मुझे ऐसा लाल दीजिये , जिसकी कहीं तुलना न हो । सूतजी कहते है - ऐसा कहकर उस राक्षसने ब्रह्माजीको नमस्कार किया और ब्रह्माजी भी उसे अभीष्ट वर देकर अपने धामको चले गये । 

ब्रह्माजी से अत्यन्त बल पाकर राक्षस अपने घर आया और माताको प्रणाम करके शीघ्रतापूर्वक बड़े गर्वसे बोला- - " माँ ! अब तुम मेरा बल देखो । मैं इन्द्र आदि देवताओं तथा इनकी सहायता करनेवाले श्रीहरिका महान् संहार कर डालूंगा । ' ऐसा कहकर भयानक पराक्रमी भीमने पहले इन्द्र आदि देवताओंको जीता और उन सबको अपने - अपने स्थानसे निकाल बाहर किया । तदनन्तर देवताओंकी प्रार्थनासे उनका पक्ष लेनेवाले श्रीहरिको भी उसने युद्धमें हराया ।

भीम ने महावीर महाराज सुदक्षिण को कैसे परासत् किया:-

 फिर प्रसन्नतापूर्वक पृथ्वीको जीतना प्रारम्भ किया । सबसे पहले वह कामरूप देशके राजा सुदक्षिणाको जीतने के लिये गया । वहाँ राजाके साथ उसका भयंकर युद्ध हुआ । दुष्ट असुर भीम ने ब्रह्माजीके दिये हुए वर के प्रभावसे शिवके आश्रित रहनेवाले महावीर महाराज सुदक्षिण को परास्त कर दिया और सब सामग्रियोसहित उनका राज्य तथा सर्वस्व अपने अधिकारमें कर लिया ।

 भगवान् शिवके प्रिय भक्त धर्मप्रेमी परम धर्मात्मा राजा को भी उसने कैद कर लिया और उनके पैरों में बेड़ी डालकर उन्हें एकान्त स्थानमें बंद कर दिया । वहीं उन्होंने प्रीतिके लिये शिवकी उत्तम पार्थिवमूर्ति बनाकर उन्हींका भजन - पूजन आरम्भ कर दिया । उन्होंने वारंवार गङ्गाजीकी स्तुति की और मानसिक स्रान आदि करके पार्थिव पूजनकी विधिसे शंकरजीकी पूजा सम्पन्न की । 

शिवजी का पञ्चाक्षरमन्त्र:-

विधिपूर्वक भगवान् शिवका ध्यान करके वे प्रणवयुक्त पञ्चाक्षरमन्त्र ( ॐ नमः शिवाय ) का जप करने लगे । अब उन्हें दूसरा कोई काम करने के लिये अवकाश नहीं मिलता था । 

उन दिनों उनकी साध्वी पत्नी राजवल्लभा दक्षिणा प्रेमपूर्वक पार्थिवा - पूजन किया करती थीं । वे दम्पति अनन्यभावसे भक्तोंका कल्याण करनेवाले " भगवान शंकरका भजन करते और प्रतिदिन उनहीं की आराधनामें तत्पर रहते थे । 

इधर वह राक्षस वरके अभिमानसे मोहित हो यज्ञकर्म आदि सब धर्मोंका लोप करने लगा और सबसे कहने लगा - ' तुम लोग सब कुछ मुझेही दो । ' महर्षियो ! दुरात्मा राक्षसोंकी बहुत बड़ी सेना साथ ले उसने सारी पृथ्वीको अपने वश में कर लिया । वह वेदों , शास्त्रो , स्मृतियों और पुराणों में बताये हुए धर्मका लोप करके शक्तिशाली होनेके कारण सबका स्वयं ही उपभोग करने लगा । 

तब सब देवता तथा ऋषि अत्यन्त पीड़ित हो महाकोशीके सठपर गये और शिवका आराधन तथा स्तवन करने लगे । उनके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् शिव अत्यन्त प्रसन्न हो देवताओंसे बोले- ' देवगण तथा महर्षियो ! मैं प्रसन्न हूँ । वर माँगो । तुम्हारा कौन - सा कार्य सिद्ध कर ? ' देवता बोले - देवेश्वर । आप अन्तर्यामी है , अतः सबके मनकी सारी बातें जानते हैं । आपसे कुछ भी अज्ञात नहीं है ।

 प्रभो ! महेश्वर ! कुम्भकर्णसे उत्पन्न कर्कटीका बलवान् पुत्र राक्षस भीम ब्रह्माजीके दिये हुए बरसे शक्तिशाली हो देवताओंको निरन्तर पीड़ा दे रहा है । अतः आप इस दुःखदायी राक्षसका नाश कर दीजिये । हमपर कृपा कीजिये , विलायन । कीजिये

शम्भुने कहा - देवताओ ! कामरूप देशके राजा सुदक्षिणा मेरे श्रेष्ठ भक्त हैं । उनाने मेरा एक संदेश कह दो । फिर तुम्हारा सारा कार्य शीघ्र ही पूरा हो जायगा । उनसे कहना - ' कामरूप देशके अधिपति महाराज सुदक्षिण ! प्रभो ! तुम मेरे विशेष भक्त हो । अतः प्रेमपूर्वक मेरा भजन करो । दुष्ट राक्षस भीम ब्रह्माजीका वर पाकर प्रयाला हो गया है । इसीलिये उसने तुम्हारा तिरस्कार किया है । परंतु अब मैं उस दुष्टको मार डालूंगा , इसमें संदेह नहीं है ।

 ' सूतजी कहते है - ब्राह्मणो ! तब उन्न सब देवताओने प्रसन्नतापूर्वक वहाँ जाकर उन महाराजसे शाम्भुकी कही हुई सारी बात कह सुनायी । उनसे वह संदेश कहकर देवताओं और महर्षियोंको बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ और ये सब - के - सब शीघ्र ही अपने अपने आश्रमको चले गये । इधर भगवान् शिव भी अपने गणोंके साथ लोकहितकी कामनासे अपने भक्तकी रक्षा करनेके लिये सादर उसके निकट गये और गुप्तरूपरसे वहीं ठहर गये । 

इसी समय कामरूपनरेशने पार्थिव शियके सामने गाढ़ ध्यान लगाना आरम्भ किया । इतने में ही किसीने राक्षससे जाकर कह दिया कि राजा तुम्हारे ( नाशके ) लिये कोई पुरश्चरण कर रहे हैं । यह समाचार सुनते ही वह राक्षस कुपित हो उठा और उनको मार डालनेकी इच्छासे नंगी तलवार हाथमें लिये राजाके पास गया । याहाँ पार्थिव आदि जो सामग्री स्थित थी , उसे देखकर तथा उसके प्रयोजन और स्वरूपको सपझकर राक्षसने यही माना कि राजा मेरे लिये कुछ कर रहा है ।


' अतः सब सामग्रियोसहित इस नरेशको में बलपूर्वक अभी नष्ट कर देता हूँ , ऐसा विचारकर उस महाक्रोधी राक्षसने राजाको बहुत डाँटा और पूछा ' क्या कर रहे हो ? ' राजाने भगवान शंकरपर रक्षाका भार सौंपकर कहा- “ मै चराचर जगतके स्वामी भगवान् शिवका पूजन करता हूँ ।

राक्षस भीमने भगवान् शंकरके प्रति बहुत तिरस्कारयुक्त दुर्वचन कहे और उसका परिणाम क्या हुआ:-

 ' तब राक्षस भीमने भगवान् शंकरके प्रति बहुत तिरस्कारयुक्त दुर्वचन कहकर राजाको अपकाया और भगवान् शंकरके पार्थिव- लिङ्गपर तलवार चलायी । वह तलवार उस पार्थिवलिङ्गका स्पर्श भी नहीं करने पायी कि उससे साक्षात् भगवान् हर याही प्रकट हो गये और बोले - ' देखो , मैं भीमेश्वर हूँ और अपने भक्तकी रक्षाके लिये प्रकट हुआ है । मेरा पहलेसे ही यह व्रत है कि मैं सदा अपने भक्तकी रक्षा करूँ । इसलिये भक्तोंको सुख देनेवाले मेरे बलकी ओर दृष्टिपात करो ।

 ' ऐसा कहकर भगवान् शिवने पिनाकसे उसकी तलवारके दो टुकड़े कर दिये । तब अस राक्षसने फिर अपना त्रिशूल अलाया , परंतु शम्भुने उमर दुष्टके त्रिशूलके भी सैकड़ों टुकड़े कर डाले । तदनन्तर शंकरजीके साथ उसका घोर युद्ध हुआ जिससे सारा जगन् क्षुव्य हो उठा । तब नारदजीने आकर भगवान् शंकरसे प्रार्थना की । 

नारद बोले - लोगोंको भ्रम में डालनेवाले महेश्वर ! मेरे नाथ ! आप क्षमा करें , क्षमा करें । तिनकेको काटनेके लिये कुल्हाड़ा चलानेकी क्या आवश्यकता है । शीघ्र ही इसका संहार कर झलिये । नारदजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर भगवान् शम्भुने हुंकारमात्रसे उस समय समस्त राक्षसोको भस्म कर डाला ।

 मुने ! सब देवताओंके देखते - देखते शिवजीने उन सारे राक्षसोंको दग्ध कर दिया । तदनन्तर ( शंकरकी कृपासे इन्द्र आदि समस्त देवताओं और मुनीश्वरोको शान्ति मिली तथा सम्पूर्ण जगत् स्वस्थ हुआ । उस समय देवताओं और विशेषतः मुनियोंने भगवान् शंकरसे प्रार्थना की कि ' प्रभो ! आप यहाँ लोगोंको सुख देनेके लिये सदा निवास करें । यह देश निन्दित माना गया है । यहाँ आनेवाले लोगोंको प्रायः दुःख ही प्राप्त होता है ।

 परंतु आपका दर्शन करनेसे ग्रहों सबका कल्याण होगा । आप भीमशंकरके नामले विख्यात होंगे और सबके सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि करेंगे । आपका यह ज्योतिर्लिङ्ग सदा पूजनीय और समस्त आपत्तियोंका निवारण करनेवाला होगा । ' सूतजी कहते हैं - ब्राह्मणो ! उनके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर लोकहितकारी एवं भक्तवत्सल परम स्वतन्त्र शिव प्रसन्नतापूर्वक वहीं स्थित हो गये । 


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